सर्विस देने की आड़ मे चल रहा टैक्स बचाने का खेल ऑनलाइन के जमाने में कच्ची रसीदों से चला रहे हैँ काम जिन्हे लोग सबसे आवश्यक सेवा मानते हैं, जिनके शुल्क पर कोई मोलभाव नहीं होता। उनके द्वारा ही सबसे अधिक टैक्स बचाने के जुगाड़ किए जाते हैं। हम बात कर रहे हैँ शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सेवाओं की। जो अति आवश्यक सेवाओं के दायरे में ही आते हैं। जिनके लिए सरकार भी अपनी ओर से व्यवस्था करती है परंतु सरकारी तंत्र एवं प्रशासन आज भी इनसे पूरा टैक्स ले पाने में असफल हो चुका है। हाल ही में एक निजी स्कूल को छिंदवाड़ा एसडीएम में फीस लेकर रसीद नहीं देने के मामले में जमकर फटकार लगाई। उसके द्वारा न तो आनलाइन फीस जमा की जा रही थी न चेक से लिया जा रहा था और न ही रसीद दी जा रही थी। यह जिले के लगभग सभी निजी स्कूलों क ी प्रक्रिया है जिनके द्वारा पारदर्शिता नहीं बरती जाती। यह आज से नहीं है वरन कई वर्षों से चल रहा है जिसमें अभिभावक अपने बच्चों के भविष्य की चिंता में फीस व रसीद की चिंता नहीं करते हैँ। स्कूल से मिली कच्ची रसीद पर सवाल नहीं करते हैँ कि वह किस बात की फीस ले रहे हैं। कोरोना संक्रमण के दौर में लॉक डाउन के बाद शिक्षण शुल्क का मामला निकला तो खुलकर सारी बाते सामने आने लगी। जिसमें सरकार, यहां तक कि कोर्ट ने शिक्षण शुल्क जमा करने के लिए कहा। डीईओ अरविंद चौरगडे ने बताया कि अभिभावकों से लिया जाने वाला शिक्षण शुल्क पूरा का पूरा शिक्षकों की वेतन में जाना चाहिए। लेकिन स्कूल संचालक अब भी मनमानी कर डाले। जब शिक्षण शुल्क जमा करने की बात आई तो उन्होने पूरी फीस को ही शिक्षण शुल्क बना डाला। संभव है कि पूरा शिक्षण शुल्क शिक्षकों के खाते में डालकर उनसे ही निकलवाकर वापस जमा करवा लिया जाता होगा। स्कूल का शिक्षण शुल्क कितना है यह उनके इनकम टैक्स में जमा करने वाले डिटेल से पता भी चल जाएगा। क्योंकि लिए जाने वाले शिक्षण शुल्क को शिक्षकों क ो देने के कारण इससे स्कूलों को टैक्स में छूट का लाभ हो जाता है। शिक्षा विभाग के एक अधिकारी की माने तो स्कूलों के द्वारा बढ़ाया गया शिक्षण स्कूल अब उन्हीं के लिए सरदर्द साबित होगा। सवाल यह भी है कि शिक्षा विभाग के पास जिले के निजी स्कूलों का दारोमदार होने के बाद भी पिछले साल तक का शिक्षण शुल्क का हिसाब क्यों नहीं है।